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जनि॑ष्ट॒ हि जेन्यो॒ अग्रे॒ अह्नां॑ हि॒तो हि॒तेष्व॑रु॒षो वने॑षु। दमे॑दमे स॒प्त रत्ना॒ दधा॑नो॒ऽग्निर्होता॒ नि ष॑सादा॒ यजी॑यान् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

janiṣṭa hi jenyo agre ahnāṁ hito hiteṣv aruṣo vaneṣu | dame-dame sapta ratnā dadhāno gnir hotā ni ṣasādā yajīyān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जनि॑ष्ट। हि। जेन्यः॑। अग्रे॑। अह्ना॑म्। हि॒तः। हि॒तेषु॑। अ॒रु॒षः। वने॑षु। दमे॑ऽदमे। स॒प्त। रत्ना॑। दधा॑नः। अ॒ग्निः। होता॑। नि। स॒सा॒द॒। यजी॑यान् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:1» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्! जो (अह्नाम्) दिनों के (अग्रे) अग्रभाग में (हितेषु) सुख के कारणों में (हितः) हित करनेवाला (वनेषु) वनों में (अरुषः) मर्मस्थलों में न व्यापी (दमेदमे) गृह-गृह में (सप्त) सात किरणों और (रत्ना) धनों को (दधानः) धारण करता हुआ (जेन्यः) जीतनेवाला (अग्निः) अग्नि के सदृश (होता) सङ्गत क्रियाओं का कर्त्ता (जनिष्ट) उत्पन्न होता है और श्रेष्ठ कर्म्मो में (नि, ससाद) प्रवृत्त होवे (हि) वही (यजीयान्) अत्यन्त यज्ञ करनेवाला होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दिन के आरम्भ में प्रभातसमय सब का हितकारी होता है, वैसे ही श्रेष्ठ कर्म करनेवाला यजमान सब का हितैषी होता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन्! योऽह्नामग्रे हितेषु हितो वनेष्वरुषो दमेदमे सप्त किरणान् रत्ना दधानो जेन्योऽग्निरिव होता जनिष्ट सत्कर्मसु निषसाद स हि यजीयान् जायते ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जनिष्ट) जायते (हि) (जेन्यः) जेतुं शीलः (अग्रे) (अह्नाम्) दिनानाम् (हितः) हितकारी (हितेषु) सुखनिमित्तेषु (अरुषः) न मर्मव्यापी (वनेषु) जङ्गलेषु (दमेदमे) गृहेगृहे (सप्त) सप्तसङ्ख्याकान् किरणान् (रत्ना) रत्नानि धनानि (दधानः) धरन् (अग्निः) अग्निरिव (होता) सङ्गतक्रियाकर्त्ता (नि) (ससाद) निषीदेत्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यजीयान्) अतिशयेन यज्ञकर्त्ता ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दिवसाऽऽरम्भे प्रभातसमयः सर्वेषां हितकारी वर्त्तते तथैव सत्कर्मकर्त्ता यजमानः सर्वहितैषी जायते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळ सर्वांची हितकर्ती असते तसेच श्रेष्ठ कर्म करणारे यजमान सर्वांचे हितकर्ते असतात. ॥ ५ ॥